Tuesday, 3 May 2016

जब बुकानन ने मनेर का मक़बरा देखा

स्कॉटलैंड में पैदा हुआ पेशे से डॉक्टर रहे बुकानन 1794 में ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी में सर्जन के तौर पर शामिल हुआ था, लेकिन उसकी रूचि प्राकृतिक इतिहास और भूविज्ञान में थी।  इसलिए हिंदुस्तान आते ही तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड वेलेस्ले ने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन इलाकों के इतिहास, कला -संस्कृति, व्यापार, सामाजिक तथा धार्मिक रिवाजों, कर्मकांडों, रीति -रिवाजों, कृषि, वास्तुशिल्प और प्राकृतिक संसाधनों  के सर्वेक्षण के काम में लगा दिया।

शुरू के वर्षों में उसे अंदमान द्वीप पर वनस्पतियों के शोध पर लगाया गया। टीपू सुलतान से मैसूर जीतने के बाद गवर्नर जनरल ने उसे मैसूर राज्य के सर्वेक्षण का काम दिया। उसे व्यवस्थित ढंग से शोध करने में महारत हासिल था। 1807 से लेकर 1815 तक वह कंपनी के अधीन सारे इलाकों का सर्वेक्षण करता रहा। इसी क्रम में वह बिहार भी आया।

1807 की सर्दियों में उसने सर्वेक्षण का काम शुरू किया। इसकी शुरुआत उसने पूर्णियां से की। भागलपुर, मुंगेर, पटना, गया, शाहाबाद होते हुए वह गोरखपुर तक गया। अपनी यात्रा वह अक्सर घोड़े पर सवार होकर ही करता था। उसके साथ उसके कुछ कारिंदे भी होते थे।

बुकानन 4 नवंबर 1811 को पटना पहुंचा। 16 अक्टूबर को वह मुंगेर से चला था। सूर्यगढ़ा, प्रतापपुर, इन्दूपुर, बड़हिया, मेकरा होते हुए 26 अक्टूबर को वह बाढ़ पहुंचा। 1 नवंबर तक वह बाढ़ में रुका रहा।  

3 नवंबर को वह बैकठपुर पहुंचा। वहां से फतुहा। रास्ते में उसे राजा सिताब राय का बगीचा भी मिला, जो उनदिनों उजाड़ हो चला था। पटना के पूरबी द्वार के पहले उसे जाफर खान का विशाल बगीचा मिला। बगीचे के नजदीक उसने एक भव्य भवन देखा, जो किसी बड़े व्यापारी की थी। उसके नजदीक उसने एक विशाल मंदिर और तालाब का भी उल्लेख किया है। पटना में वह 6 नवंबर तक रुका रहा। इस अवधि में उसने यहाँ का व्यापक सर्वेक्षण किया। घोड़े पर सवार होकर  वह यहाँ के चप्पे -चप्पे में घूमता रहा।

6 नवंबर को वह फुलवारी शरीफ के लिए रवाना हुआ। सिलाव,  राजगीर,पावापुरी,लछुआर, नालंदा, गया,बोधगया, सासाराम, रोहतास इत्यादि होते हुए वह 27 फ़रवरी को मनेर पहुंचा। उसने लिखा है, 'सोन नदी के किनारे होते हुए मैं मनेर पहुंचा। शेरपुर के नजदीक गंगा नदी सोन में आ मिलती है। मनेर एक घनी आबादी वाली बड़ा इलाका है। यहाँ के निवासियों के मकान ठीक ठाक हैं। पश्चिमी छोड़ पर एक विशाल और खूबसूरत तालाब है। सोन नदी से यह भूमिगत सुरंग द्वारा जुड़ा हुआ है। लेकिन इस वक्त इसका पानी गन्दा और झाड़ -झंखाड़ों से भरा हुआ है। तालाब के चारों ओर ईंट की सीढ़ियां बनी हुई हैं। हर तरफ चबूतरा बना हुआ है। चबूतरा गुंबदों से ढका हुआ है। लेकिन ढंग से रख रखाव नहीं होने से ये गुंबद ढह रहे हैं। इसके दक्षिण यहाँ के पीर का मक़बरा है। यह ईटों की दीवार से घिरा हुआ है। अंदर में एक मस्जिद है। फकीरों के ठहरने के लिए मठ भी बने हुए हैं। पीर के पोते ने उनके सम्मान में यहाँ पर एक शानदार मकबरे का निर्माण करवाया है।'

इस मकबरे की तारीफ करते हुए बुकानन लिखता है,' अपने सर्वेक्षण के दौरान मैंने इतनी खूबसूरत ईमारत अब तक नहीं देखी थी। आमतौर पर जिस तरह से मुसलमानों के मकबरे बनाये जाते हैं, यह भी बना हुआ है। चुनार से लाये गए बलुआ लाल पत्थरों से इसे बनाया गया है। यह इंडो -इस्लामिक वास्तुशिल्प का बेहतरीन नमूना है।'

बुकानन ने विस्तार से इसके वास्तुशिल्प का वर्णन किया है। लेकिन इसके साथ ही उसने  मकबरे के आस पास जो दृश्य देखा, उससे वह मर्माहत हो गया। उसने  क्षोभ के साथ लिखा है,' मकबरे के अंदर फकीरों को  खाना बनाने की छूट मिली हुई थी। ईटों को अंगीठी बना कर उस पर वे मिटटी के बर्तन में खाना पका रहे थे। अंगीठी से निकलता धुआं मकबरे की खूबसूरत दीवारों पर अपनी छाप छोड़ रहा था। कोने में बने एक कक्ष को एक जंगली सा दिखने वाले फ़क़ीर ने अपना ठिकाना बना रखा था। उसने खिड़कियों को मिटटी के बने बर्तनों से ढँक दिया था। दीवार में बनी खूबसूरत जालियों को उसने गोबर के उपलों से बंद कर दिया था। अंदर में बैठ कर वह आग जला कर अपने हाथ सेंक रहा था। यह सब देखना असहनीय था।'

मकबरे की दुर्गति से व्यथित हो वह लिखता है,' मकबरे के रख-रखाव पर पीर के वंशज खर्च करना नहीं चाहते हैं। जबकि उनके पास 6000 बीघा जमीन का मालिकाना हक़ है। इसके लिए उन्हें कोई मालगुजारी भी नहीं देनी होती है और जमीन भी बहुत ही उपजाऊ है। लोग बताते हैं कि उससे हुई पूरी आमदनी  निठ्ठले, घिनौने, आवारा, फकीरों पर खर्च की जाती है।'

बुकानन को मनेर आये हुए करीब दो सौ बरस हो गए। मनेर के मकबरे में कोई फर्क आया है क्या ?

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