Tuesday, 3 May 2016

पटना कभी कपड़ों का बहुत बड़ा उत्पादन केंद्र था

पटना सिटी के इलाकों में घूमते हुए आज यह यकीन कर पाना मुश्किल होगा कि कभी यह इलाका कपड़ों का बहुत बड़ा उत्पादन केंद्र और बाजार था, जहां से दूर देशों में कपड़ों का निर्यात किया जाता था।

1790 की एक रिपोर्ट के अनुसार यहां 11,000 दुकानें थीं जिनमें 153 दुकानें धुनियों की थी जो रजाई के लिए रुई तैयार करते थे। 50 दुकानों में  कपड़ों पर छापा का काम होता था। इसके अतिरिक्त 7 दुकानों में रुई बेचा जाता था। 124 दुकान बजाजों के थे, जो कपड़े बेचा करते थे। 71 कालीन के कारखाने थे जहां दिन-रात कालीन तैयार किये जाते थे।
इसके बीस वर्षों के बाद जब बुकानन इस इलाके में सर्वेक्षण का काम करने आया तो उसने यहां कपड़ों के कई कारखाने देखे जहां उम्दा किस्म के कपड़े तैयार किये जा रहे थे। उस वक्त ब्रिटेन से आयातित कपड़ों का यहां कोई नामोनिशान नहीं था।

बुकानन की रिपोर्ट के अध्ययन से यह पता चलता है कि पटना जिला में बुनकरों के 175 गांव और मोहल्ले थे जहां के निवासी उत्पादन के काम में लगे हुए थे। यद्यपि इसके दस वर्षों के बाद ही यहां ब्रिटेन से आयातित कपड़े बिकने लगे थे क्योंकि उस पर कोई टैक्स न लगने की वजह से वे बेहद सस्ते होते थे।

1830 आते-आते ब्रिटेन से प्रचुर मात्रा में कपड़ों का आयात किया जाने लगा। अगले तीस वर्षों में यानि 1860 तक पटनावासियों की निर्भरता पूरी तरह ब्रिटिश कपड़ों पर हो गयी। एक आंकड़े के अनुसार जितना कपड़ों का उत्पादन यहां के कारखाने कर रहे थे उससे चार गुना ज्यादा ब्रिटेन से आयातित कपड़ा यहां के बाजार में भर दिया गया। टैक्स न लगने की वजह से ये बेहद सस्ते थे इसलिए स्थानीय निवासी इन्हें खरीदने लगे।

 यह यहां के हथकरघा उद्योग के लिए बड़ा आघात था। रही सही कसर कानपुर और मुम्बई के कारखानों में बने सस्ते कपड़ों ने पूरी कर दी। 1870 के आस पास इन कारखानों के कपड़ों से यहां के बाजार भर गए थे। मशीन में बने सस्ते धागों ने भी यहां के हथकरघा उद्योग को क्षति पहुंचाई। 

सिर्फ मोटिया कपड़े इस आक्रमण को झेल गए थे। यह अभी भी सस्ते और आयातित कपड़ों की तुलना में मजबूत होते थे। यह ग़रीबों का कपड़ा  था। वही इसके खरीदार होते थे। इसे स्वदेशी धागों और मशीन के बने धागों को मिला कर बनाया जाता था। 

आयातित कपड़ों का असर पटना के निकट बाढ़ के बुनकरों पर भी पड़ा। इनके द्वारा उत्पादित वस्त्र बख्तियारपुर, फतुहा और नवादा के बाजारों में बेचे जाते थे। इन बुनकरों को सूती तौलिया, सूती चादर और टेबल क्लॉथ बनाने में महारत हासिल था। ये इसे दानापुर में बेचते थे जहां से इन्हें कानपुर भेजा जाता था।      
हथकरघा उद्योग के पतन ने स्थानीय आबादी के एक बड़े हिस्से को नुकसान पहुँचाया। धुनिया, जो रुई साफ़ करते थे, सूत काटने वाले जिनमें महिलाएं होती थीं और बुनकर जो मुस्लिम जुलाहे और हिन्दू ततवा होते थे, सबों का रोजगार छिन गया था।  

बुकानन की रिपोर्ट के अनुसार पटना के 278 धुनियों, 23,400 सूत काटने वालों, 2,010 बुनकरों के घर और  2,692 कारखानों पर इसका असर पड़ा। इस तरह यहाँ का फलता फूलता उद्योग मेनचेस्टर  में बने कपड़ों और बाद में हिंदुस्तान के कारखानों के सस्ते कपड़ों से पूरी तरह नष्ट हो गया।

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