Friday 12 February 2016

तब पटना में ट्राम चलाने की बनी थी योजना

अपनी किताब ‘यादगार-ए- रोज़गार’ में सैयद बदरुल हसन ने पटना में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार का भी जिक्र किया है। उसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खान के पटना आगमन के बारे में भी लिखा है। वे लेखक के एक करीबी रिश्तेदार क़ाज़ी रज़ा हुसैन के घर मेहमान बन कर ठहरे थे। उसने मौलाना मोहम्मद हसन के मोहमडेन एंग्लो- अरेबिक हाई स्कूल शुरू करने के प्रयासों के बारे में भी लिखा है। उसी तरह उसने शम्सुल होदा साहब के लोदी कटरा स्कूल के बारे में भी जिक्र किया है। ये स्कूल अंग्रेजी तालीम देने के लिए खोले गये थे। अंग्रेजी तालीम के एक दुष्प्रभाव का भी लेखक ने जिक्र किया है। उन्होंने यह पाया था कि अंग्रेजी तालीम पाये नौजवान शादी के वक्त दहेज़ की मांग करते थे। बंगालियों में यह चलन कुछ ज्यादा ही था।
वैसे लेखक ने अंग्रेजी तालीम की वकालत की है। वह इस बात से सहमत नहीं दिखते हैं कि पाश्चात्य शिक्षा लोगों को अंग्रेजियत में ढाल देती है। वह इसके लिए गलत परवरिश को दोषी मानते हैं जिसकी वजह से लोग अपनी तहज़ीब को भूलते जाते रहे हैं। वह पाश्चात्य ढंग के रहन सहन और उनके पोशाक को उचित नहीं मानते हैं। लेखक ने यह भी महसूस किया कि यूरोपियन भी उन्ही लोगों को सम्मान देते थे जो हिन्दुस्तानियत के साथ रहते थे। उनकी नहीं, जो अंग्रेजों की नक़ल कर उनकी पोशाक और जीवनशैली अपना लेते थे।
लेखक की तत्कालीन समाज की महिलाओं को लेकर कोई बहुत अच्छी धारणा नहीं थी। वह उन्हें घर प्रबंधन में कुशल नहीं मानते हैं। वह उनकी तुलना यूरोपियन महिलाओं से करते हैं। वह लिखते हैं,’ यूरोपियन महिलाएं पढ़ी लिखी होती हैं। घर का प्रबंधन वह अपने पति के बगैर ही कुशलता के साथ कर लेती हैं। उनकी तुलना में हमारे घर की महिलाएं कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ी ही होती हैं। घर का प्रबंधन वे ठीक से नहीं कर पाती हैं। फलस्वरूप घर के मुखिया को ही घर का सारा कामकाज संभालना पड़ता था। वे अपनी पत्नी को घर का प्रबंधन पूरी तरह कभी नहीं सौपते थे।’
वे एक मामले में यहाँ की औरतों की निंदा भी करते हैं। वे लिखते हैं,’ हमारी घर की औरतें अपने मायके के लोगों की परवरिश अपने पति की खर्चे से करती हैं। मैंने कई ऐसे घर देखे हैं जहाँ यह हो रहा था। इसकी वजह से पति पत्नी में अक्सर नोक झोंक भी होते रहते थे।’
लेकिन दूसरी ओर उन्होंने पटना की कुछ पढ़ी लिखी औरतों और कवित्रियों का भी जिक्र किया है। उन्होंने खास तौर बी उम्दा नाम की एक औरत का उल्लेख किया है। बी उम्दा को शीशे पर उम्दा कैलीग्राफी के लिए जाना जाता था। उनकी शोहरत दूर तक थी। रामपुर के दरबार से उन्हें बुलावा आया था। वे काफी वर्षों तक वहां रहकर अपने हुनर का प्रदर्शन करती रहीं।
सैयद बदरुल ने उन महिलाओं के बारे में भी लिखा है जिन्हें किस्सागोई में महारत हासिल थी। ऐसी औरतें शाम के वक्त संपन्न मुस्लिम परिवारों में जाकर उन्हें दिलचस्प कहानियां सुनाती और उनका मन बहलातीं। कुछ औरतें नकलनवीस और लेखन का काम भी करती थीं।
एक दूसरी किताब ‘नक़्श-ए-पायदार’ में अली मुहम्मद शाद ने पटना में शीशे की बनी हुई वस्तुओं का जिक्र किया है। उसने लिखा है, यहाँ बनी शीशे के सामान इतने नफीस होते हैं कि दूर के शहरों में भी उनकी जबरदस्त मांग थी। ये बेहद खूबसूरत और नाजुक होते थे। किताब में शेख मियां जान का उल्लेख है जिसके बनाये शीशे के सामानों की काफी मांग थी। लेकिन बाद के दिनों में सस्ते और खूबसूरत जापानी आयातित बर्तनों ने यहां के बर्तनों के बाजार को नुक़सान काफी पहुँचाया।
लेखक ने नन्हें आगा, अली मिर्ज़ा जैसे कई कारीगरों का उल्लेख किया है जो अपनों सिलाई और कढ़ाई के कामों के लिए मशहूर थे। इनकी बनाई टोपी की कीमत सौ रूपये से कम नहीं होती थी। कुछ ऐसी महिला दर्जियों का भी जिक्र है जो सूट की सिलाई के 70- 80 रूपये तक लेती थी। लेखक ने शहर में बनाये जा रही कलात्मक वस्तुओं का भी जिक्र किया है। आतिशबाजी बनाने में भी यहाँ के कारीगर निपुण थे।
लेखक ने पतंग उड़ाने के शौकीन लोगों का भी जिक्र किया है। इसमें बाजियां भी लगती थीं। ऐसे मौकों पर भारी भीड़ जुट जाती थी। मुर्गे और तीतर की लड़ाई भी बहुत मशहूर थी। इसमें भी जमकर बाजियां लगाई जाती थी। एक बार किसी ने 2200 रूपये की बड़ी रकम बाजी में लगाई थी। लेखक ने बताया है कि 19 सदी के उत्तरार्ध में पटना में बासमती चावल 1 रूपये प्रति मन, 45 सेर गेहूं 1 रूपये में, बकरे का मांस 6 पैसे सेर, 1 रूपये का 4 सेर घी और 1 पैसे का एक सेर दूध मिलता था।
लेखक ने शहर में ट्राम चलाने की योजना के बारे में भी लिखा है। उसने लिखा है कि ब्रिटिश सरकार ने मुरादपुर तक ट्राम चलाने की योजना बनाई थी। इसके शेयर भी बेचे जा चुके थे। लेकिन किन्हीं कारणों से यह शुरू नहीं हो सका।

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